Tuesday, April 4, 2023

कबीर दास का जीवन परिचय || Kabir Das ka Jivan Parichay

 

Kabir Das Ka Jivan-Parichay

पोथी पढ़ी पढ़ी जग मुआ, पंडित भया न कोय। 

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।।

     आज हम एक ऐसे व्यक्ति की विराट छाया में खड़े हैं। जिनके नाम का अर्थ महान होता है। कहा जाता हैं। वह पेशे से बुनकर थे। कपड़ा बुनने का काम करते थे। लेकिन वह अपने समाज के लिए, ऐसी बातें बुनकर या कहकर चले गए। कि आज उनके बगैर भारत की कहानी अधूरी है।

      यह व्यक्ति आज से 600 साल पहले हुए। उनके बारे में यह भी कहा जाता है कि अगर आज वह होते। तो न जाने कितने मुकदमे उन पर हो गए होते। उन्हें कबीर कहते हैं। चलिए खुद में कबीर को ढूंढते हैं। कबीर में खुद को ढूंढते हैं। 

      हिंदू, मुसलमान, ब्राह्मण, धनी, निर्धन सबका वही एक प्रभु है। सभी की बनावट में एक जैसी हवा। खून पानी का प्रयोग हुआ है। भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, नींद सभी की जरूरते एक जैसी हैं। सूरज, प्रकाश और गर्मी सभी को देता है। वर्षा का पानी सभी के लिए है।

      हवा सभी के लिए है। सभी एक ही आसमान के नीचे रहते हैं। इस तरह जब सभी को बनाने वाला ईश्वर, किसी के साथ भेदभाव नहीं करता। तो फिर मनुष्य, मनुष्य के बीच ऊंच-नीच, धनी-निर्धन, छुआछूत का भेदभाव क्यों करता है।

      ऐसे ही कुछ प्रश्न कबीर के मन में उठते थे। जिसके आधार पर उन्होंने मानव मात्र को सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी। कबीर ने अपने उपदेशों के द्वारा, समाज में फैली बुराइयों का कड़ा विरोध किया। एक आदर्श समाज की स्थापना पर बल दिया।

 कबीर ज्ञानमार्गी शाखा के सर्व प्रमुख, एक महान संत, समाज सुधारक और कवि हैं। कबीर को संत-संप्रदाय का प्रवर्तक माना जाता है।



सन्त कबीर दास 

जीवन-परिचय

एक नज़र

नाम

संत कबीर दास

अन्य नाम

कबीरदास, कबीर परमेश्वर,  कबीर साहब

जन्म

सन 1398 

(विक्रम संवत 1455) 

एक ब्राह्मण परिवार में

जन्म-स्थान

लहरतारा, काशी, उत्तर प्रदेश

पिता (पालने वाले)

नीरू (जुलाहे)

माता (पालने वाली) 

नीमा (जुलाहे)


कर्म-क्षेत्र

●संत (ज्ञानाश्रयी निर्गुण) 

●कवि

●समाज सुधारक 

●जुलाहा

कर्मभूमि

काशी, उत्तर प्रदेश

शिक्षा

निरक्षर (पढ़े-लिखे नहीं)

पत्नी

लोई

बच्चे

● कमाल (पुत्र) 

● कमाली (पुत्री)

गुरु

रामानंद जी (गुरु) सिद्ध, गोरखनाथ

विधा

कविता, दोहा, सबद

विषय

सामाजिक व अध्यात्मिक

मुख्य रचनाएं

सबद, रमैनी, बीजक, कबीर दोहावली, कबीर शब्दावली, अनुराग सागर, अमर मूल

भाषा

अवधी, सुधक्कड़ी, पंचमेल खिचड़ी भाषा

मृत्यु

सन 1519 (विक्रम संवत 1575)

मृत्यु-स्थान

मगहर, उत्तर प्रदेश

कबीर जयंती

प्रतिवर्ष जेष्ठय पूर्णिमा के दिन

कबीरदास जी का प्रारम्भिक जीवन

 कबीर दास जी ज्ञानमार्गी शाखा के एक महान संत व समाज-सुधारक थे। कबीर जी को संत समुदाय का प्रवर्तक माना जाता है। कबीर दास जी का जन्म विक्रम संवत 1455 अर्थात सन 1398 ईस्वी में हुआ था।

       प्राचीन मान्यताओं के अनुसार, इनका जन्म काशी के लहरतारा के आसपास हुआ था। यह भी माना जाता है कि इनको जन्म देने वाली, एक विधवा ब्राह्मणी थी। इस विधवा ब्राह्मणी को गुरु रामानंद स्वामी जी ने पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया था। जिसके परिणामस्वरूप कबीर दास जी का जन्म हुआ।

     लेकिन उस विधवा ब्राह्मणी को लोक-लाज का भय सताने लगा। कि दुनिया उस पर लांछन लगाएगी। इसी वजह से उन्होंने, इस नवजात शिशु को, काशी में लहरतारा नामक तालाब के पास छोड़ दिया था।

    इसके बाद उनका पालन-पोषण एक मुस्लिम जुलाहा दंपत्ति नीरू और नीमा ने किया था। इस जुलाहा दंपत्ति की कोई संतान नहीं थी। इन्होंने ही कबीर दास जी का पालन-पोषण किया।


कबीरदास जी के जन्म की अन्य मान्यताए

 कबीर पंथ की एक दूसरी धारा के मुताबिक, कबीर लहरतारा तालाब में एक कमल के फूल पर, बाल रूप में प्रकट हुए थे। वह अविगत अवतारी हैं। यहीं पर वह बालस्वरूप में, नीरू और नीमा को प्राप्त हुए थे। इसके लिए कबीर साहब की वाणी आती है।

“गगन मंडल से उतरे सतगुरु संत कबीर 

जलज मांही पोढन कियो सब पीरन के पीर”

     कबीर के जन्म से जुड़ी तमाम किवदंती अपनी जगह मौजूद है। कहीं-कहीं इस बात का भी जिक्र आता है। कबीर का जन्म स्थान काशी नहीं, बल्कि बस्ती जिले का  मगहर और कहीं आजमगढ़ जिले का बेलहारा गांव है।

     वैसे कबीर को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। कि उनका पालन-पोषण करने वाले किस धर्म के थे। वो मुसलमान थे या हिंदू। तुर्क थे या सनातनी। यह सवाल कबीर के लिए बेईमानी है। लेकिन समाज में क्या चल रहा था। क्या चलता आ रहा था। इसको लेकर कबीर, किसी को छोड़ने वाले नहीं थे।

कबीरदास जी की शिक्षा व गुरु

 कबीर दास जी इतने ज्ञानी कैसे थे आखिर उन्होंने यह ज्ञान कहां से प्राप्त किया था उनके गुरु को लेकर भी बहुत सारी बातें हैं कुछ लोग मानते हैं कि इनके गुरु रामानंद जगतगुरु रामानंद जी थे इस बात की पुष्टि स्वयं कबीर दास के इस दोहे से मिलती है।

“काशी में हम प्रगट भए, रामानंद चेताए”

यह बात इन्होंने ही कही है। उन्हें जो ज्ञान मिला था। उन्होंने जो राम भक्ति की थी। वह  रामानंद जी की देन थी। राम शब्द का ज्ञान, उन्हें रामानंद जी ने ही दिया था। इसके पीछे भी एक रोचक कहानी है।

     रामानंद जी उस समय एक बहुत बड़े गुरु हुआ करते थे। रामानंद जी ने कबीरदास को, अपना शिष्य बनाने से मना कर दिया था। यह बात कबीर दास जी को जमी नहीं। उन्होंने ठान लिया कि वह अपना गुरु, जगतगुरु रामानंद को ही बनाएंगे।

     कबीरदास जी को ज्ञात हुआ कि रामानंद जी रोज सुबह पंचगंगा घाट पर स्नान के लिए जाते हैं। इसलिए कबीर दास जी घाट की सीढ़ियों पर लेट गए। जब वहां रामानंद जी आए। तो रामानंद जी का पैर, कबीर दास के शरीर पर पड़ गया।

      तभी रामानंद जी मुख से, राम-राम शब्द निकल आया। जब कबीरदास जी ने रामानंद के मुख से, राम राम शब्द सुना। तो कबीरदास जी ने, उसे ही अपना दीक्षा मंत्र मान लिया। साथ ही गुरु के रूप में, रामानंद जी को स्वीकार कर लिया।

अधिकतर लोग रामानंद जी को ही कबीर का गुरु मानते हैं लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो मानते हैं कि कबीर दास जी के कोई गुरु नहीं थे उन्हें जितना भी ज्ञान प्राप्त हुआ है उन्होंने अपनी ही बदौलत किया है कबीर दास जी पढ़े-लिखे नहीं थे इस बात की पोस्ट के लिए भी पुष्टि के लिए भी दोहा मिलता है

मसि कागज छुओ नहीं, कलम गई नहीं हाथ”

अर्थात मैंने तो कभी कागज छुआ नहीं है। और कलम को कभी हाथ में पकड़ा ही नहीं है।


कबीरदास जी के प्रमुख शिष्य

 कबीर के प्रिय शिष्य धर्मदास थे। कबीर अशिक्षित थे। लेकिन वह ज्ञान और अनुभव  से समृद्ध थे। सद्गुरु रामानंद जी की कृपा से कबीर को आत्मज्ञान तथा प्रभु भक्ति का ज्ञान प्राप्त हुआ। बचपन से ही कबीर एकांत प्रिय व चिंतनशील स्वभाव के थे।

      उन्होंने जो कुछ भी सीखा। वह अनुभव की पाठशाला से ही सीखा। वह हिंदू और मुसलमान दोनों को एक ही पिता की संतान स्वीकार करते थे। कबीर दास जी ने स्वयं कोई ग्रंथ नहीं लिखें। उन्होंने सिर्फ उसे बोले थे। उनके शिष्यों ने, इन्हें कलमबद्ध कर लिया था।

       इनके अनुयाईयों व शिष्यों ने मिलकर, एक पंथ की स्थापना की। जिसे कबीर पंथ कहा जाता है। कबीरदास जी ने स्वयं किसी पंथ की स्थापना नहीं की। वह इससे परे थे। यह कबीरपंथी सभी समुदायों व धर्म से आते हैं। जिसमें हिंदू, इस्लाम, बौद्ध धर्म व सिख धर्म को मानने वाले है।

कबीरदास जी की भाषा व प्रमुख रचनाएँ

 कबीरदास जी की तीन रचनाएं मानी जाती है। जिनमें पहली रचना ‘साखी’ है। दूसरी रचना ‘सबद’ और तीसरी रचना ‘रमैनी’ है। पद शैली में सिद्धांतों का विवेचन ‘रमैनी’ कहलाता है। वही सबद गेय पद है। जिन्हें गाया जा सकता है।

     सबद व रमैनी की भाषा, ब्रज भाषा है। इस प्रकार कबीर की रचनाओं का संकलन बीजक नाम से प्रसिद्ध है। बीजक के ही 3 भाग – साखी, शब्द और रमैनी है। कबीर भक्तिकाल की निर्गुण काव्यधारा अर्थात ज्ञानाश्रई शाखा के प्रतिनिधि कवि हैं।

     कबीर ने अपनी रचनाओं में स्वयं को जुलाहा और काशी का निवासी कहा है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर को “वाणी का डिक्टेटर” कहा है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने कबीर की भाषा को ‘पंचमेल खिचड़ी’ कहा है।

     कबीर के पदों का संकलन बाबू श्यामसुंदर दास ने “कबीर ग्रंथावली” शीर्षक से किया है। कबीर हिंदी के सबसे पहले रहस्यवादी कवि थे। अतः कबीर के काव्य में भावात्मक, रहस्यवाद के दर्शन होते हैं। कबीर की रचनाओं में सिध्दों, नाथों और सूफी संतो की बातों का प्रभाव मिलता है।


कबीरदास जी का दर्शनशास्त्र

कबीरदास जी का मानना था कि धरती पर अलग-अलग धर्मों में बटवारा करना। यह सब मिथ है। गलत है। यह एक ऐसे संत थे। जिन्होंने हिंदू मुस्लिम एकता को बढ़ावा दिया। इन्होंने एक सार्वभौमिक रास्ता बताया उन्होंने कहा कि ऐसा रास्ता अपनाओ। जिसे सभी अनुसरण कर सके।

     जीवात्मा और परमात्मा का जो आध्यात्मिक सिद्धांत है। उस सिद्धांत को दिया। यानी मोक्ष क्या है। उन्होंने कहा कि धरती पर जो भी जीवात्मा और साक्षात जो ईश्वर है। जब इन दोनों का मिलन होता है। यही मोक्ष है। अर्थात जीवात्मा और परमात्मा का मिलन ही मोक्ष है।

      कबीर दास जी का विश्वास था। कि ईश्वर एक है। वो एक ईश्वरवाद में विश्वास करते थे। इन्होंने हिंदू धर्म में मूर्ति की पूजा को नकारा। उन्होंने कहा कि पत्थर को पूजने से कुछ नहीं होगा।

“कबीर पाथर पूजे हरि मिलै, तो मैं पूजूँ पहार।

घर की चाकी कोउ न पूजै, जा पीस खाए संसार।”

     कबीर दास जी ने ईश्वर को एक कहते हुए। अपने अंदर झांकने को कहा। भक्ति और सूफी आंदोलन के जो विचार थे। उनको बढ़ावा दिया। मोक्ष को प्राप्त करने के जो  कर्मकांड और तपस्वी तरीके थे। उनकी आलोचना की।

      इन्होंने ईश्वर को प्राप्त करने का तरीका बताया। कि दया भावना हर एक के अंदर होनी चाहिए। जब तक यह भावना इंसान के अंदर नहीं होती। तब तक वह ईश्वर से साक्षात्कार नहीं कर सकता। कबीर दास जी ने अहिंसा का पाठ लोगों को पढ़ाया।

संत कबीरदास जी के अनमोल दोहे

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कछु होय।

माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय।।

व्याख्या – इस दोहे में कबीर मन को समझाते हुए। धैर्य की परिभाषा बता रहे हैं। वह कहते हैं कि हे मन धीरे-धीरे अर्थात धैर्य धारण करके जो करना है, वह कर। धैर्य से ही सब कुछ होता है। समय से पहले कुछ भी नहीं होता। जिस प्रकार यदि माली सौ घड़ों के जल से पेड़ सींच दे। तो भी फल तो ऋतु आने पर ही होगा।

निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय।

बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।।

व्याख्या इस दोहे का अभिप्राय है की स्वयं की निंदा करने वालों से कभी भी घबराना नहीं चाहिए अपितु उनका सम्मान करना चाहिए क्योंकि वह हमारी कमियां हमें बताते हैं हमें उस कमी को दूर करने का प्रयास करना चाहिए।

कबीरा निन्दक ना मिलौ, पापी मिलौ हजार। 

इक निंदक के माथे सो, सौं पापिन का भार।। 

व्याख्या कबीरदास जी कहते हैं कि पाप करने वाले हजारों लोग मिल जाएं। लेकिन दूसरों की निंदा करने वाला न मिले। क्योंकि निंदा करने वाला, जिसकी निंदा करता है। उसका पाप अपने सर पर ले लेता है। इसलिए उन्होंने स्पष्ट किया है कि हजारों पापी मिले। तो चलेगा। लेकिन निंदक एक भी नहीं मिले। इसलिए हमें दूसरों की आलोचना करने से बचना चाहिए। जो दूसरों की आलोचना करता है। उससे भी बचना चाहिए।

माला फेरत जग भया, फिरा न मन का फेर।

कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।।

व्याख्या यह दोहा हमें आत्ममंथन करने के लिए प्रेरित करता है। वे कहते हैं कि हरी नाम की जप की माला फेरते-फेरते, कई युग बीत गए। लेकिन मन का फेरा, नहीं फिरा अर्थात शारीरिक रूप से हम कितना भी जप कर ले। हमारा कल्याण नहीं होगा। जब तक मन ईश्वर के चिंतन में नहीं लगेगा।  अतः हाथ की माला के बजाए, मन में गुथे हुए, सुविचारों की माला फेरों। तब कल्याण होगा

न्हाये धोए क्या हुआ, जो मन मैल न जाए।

मीन सदा जल में रहे, धोए बास जाए।।

व्याख्या यह दोहा भी मन को मथने के लिए है। कबीरदास जी कहते हैं। नहाने-धोने से कुछ नहीं होगा। यदि मन का मैल नहीं गया है। अर्थात बाहर से हम कितना भी चरित्रवान क्यों न बन जाए। अगर मन से चरित्रवान नहीं है। तो सब व्यर्थ है।


कबीरदास जी की मृत्यु

कबीर दास जी की मृत्यु से जुड़ी हुई। एक कहानी है। उस समय ऐसा माना जाता था। कि यदि काशी में किसी की मृत्यु होती है। तो वह सीधे स्वर्ग को जाता है। वहीं अगर मगहर में, किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है। तो वह सीधा नर्क में जाएगा।

     ऐसी मान्यता प्रचलित थी। कबीरदास जी ने, इस मान्यता को तोड़ने के लिए, अपना अंतिम समय मगहर में बिताने का निर्णय लिया। फिर वह अपने अंतिम समय में, मगहर चले गए। जहां पर उन्होंने विक्रम संवत 1575 यानी सन 1519 ई० मे अपनी देह का त्याग कर दिया।

कबीरदास जी की मृत्यु पर विवाद

  कबीरदास जी के देह त्यागने के बाद, उनके अनुयाई आपस में झगड़ने लगे। उन में हिंदुओं का कहना था कि कबीरदास जी हिंदू थे। उनका अंतिम संस्कार हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार होना चाहिए। वही मुस्लिम पक्ष के लोगों का कहना था कि कबीर मुस्लिम थे। तो उनका अंतिम संस्कार इस्लाम धर्म के अनुसार होना चाहिए।

      तब कबीरदास जी ने देह त्याग के बाद, दर्शन दिए। उन्होंने अपने अनुयायियों से कहा कि मैं न तो कभी हिंदू था। न ही मुस्लिम। मैं तो दोनों ही था। मैं कहूं, तो मैं कुछ भी नहीं कहा था। या तो सब कुछ था। या तो कुछ भी नहीं था। मैं दोनों में ही ईश्वर का साक्षात्कार देख सकता हूं।

      ईश्वर तो एक ही है। इसे दो भागों में विभाजित मत करो। उन्होंने कहा कि मेरा कफन हटाकर देखो। जब उनका कफन हटाया गया। तो पाया कि वहां कोई शव था, ही नहीं। उसकी जगह उन्हें बहुत सारे पुष्प मिले।

     इन पुष्पों को उन दोनों संप्रदायों में आपस में बांट लिया। फिर उन्होंने अपने-अपने रीति-रिवाजों से, उनका अंतिम संस्कार किया। आज भी मगहर में कबीर दास जी की मजार व समाधि दोनों ही हैं।

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