Thursday, April 6, 2023

ION Digital Zone, Powai, Aurum IT Park, Maharashtra Location, Address, Distance | ion digital zone idz powai

 नमस्कार दोस्तों, क्या आप आयन डिजिटल ज़ोन मोरारजी नगर, पवई का रास्ता खोजने में कठिनाइयों का सामना कर रहे हैं?



चिंता न करें, मैं आईओएन डिजिटल जोन पवई तक जाने के लिए सबसे आसान रास्ता खोजने में आपकी मदद करुँगी । यहां हम आईओएन डिजिटल जोन पवई के बारे में सभी चीजें अपडेट करेंगे जैसे आईओएन डिजिटल जोन पवई दूरी, पूरा पता, स्थान, आईओएन डिजिटल जोन पवई तक पहुंचने का सबसे आसान तरीका। अधिक जानकारी के लिए लेख को ध्यान से पढ़ें।


आयन डिजिटल जोन, पवई का पता-

पता / स्थान: - औरम आईटी पार्क स्टेशन, साकी विहार रोड, रामदा होटल के पास, मोरारजी नगर, पवई, मुंबई, महाराष्ट्र 400087


आयन डिजिटल जोन, पवई का सबसे अच्छा मार्ग-

आईओएन डिजिटल जोन मोरारजी नगर, पवई में स्थित है। जिन छात्रों की वहां परीक्षाएं हैं, वे अलग-अलग तरीकों से यहां पहुंच सकते हैं या तो कांजुरमार्ग से बस और ऑटो रिक्शा ले सकते हैं। यह कंजुमार्ग से 6 किलोमीटर की दूरी पर है जहां आईओएन डिजिटल जोन पवई जाने के लिए सभी सार्वजनिक परिवहन उपलब्ध हैं।

बस से-

आयन डिजिटल जोन पवई तक बस से कैसे पहुंचे। आयन डिजिटल ज़ोन जाने के लिए, कांजुरमार्ग रेलवे स्टेशन पर जाएँ, डॉकयार्ड कॉलोनी से मोरारजी नगर के लिए सबसे अच्छी बस लें। आयन डिजिटल ज़ोन औरम आईटी पार्क स्थान तक पहुँचने में 35-40 मिनट लगते हैं।


ऑटो रिक्शा से-

कांजुरमार्ग से मोरारजी नगर तक रिक्शा का किराया रिक्शा किलोमीटर के मीटर पर निर्भर करता है, कंजुमर्ग से मोरारजी नगर की दूरी 6 किमी है। या एक साझा उबेर या ओला कैड लें। यह आपको सीधे आयन डिजिटल ज़ोन, पवई तक पहुँचाता है

आम तौर पर एक साझा रिक्शा में ऑटो रिक्शा का किराया 50-60 रुपये के बीच होता है


रेलवे द्वारा-

साकीनाका मेट्रो स्टेशन पर जाएं वहां से आपको मोरारजी नगर के लिए एक साझा रिक्शा लेना होगा, साकीनाका रेलवे स्टेशन से 4 किमी की दूरी पर 20-25 मिनट में आप आयन डिजिटल जोन स्थान पर पहुंच जाएंगे


अंधेरी रेलवे स्टेशन से आयन डिजिटल जोन पवई-

अंधेरी रेलवे स्टेशन से आयन डिजिटल ज़ोन पवई तक 8.5 किमी की दूरी, अंधेरी रेलवे स्टेशन से साकीनाका मेट्रो स्टेशन तक मेट्रो लें। इसमें 20-25 मिनट लगते हैं। फिर साकीनाका मेट्रो स्टेशन से मोरारजी नगर तक रिक्शा लें।


जब आप बस या रेलवे से यात्रा कर रहे हों तो अपने मोबाइल का जीपीएस चालू रखें। कभी-कभी किसी परीक्षा में जाने के लिए, हम पर परीक्षा से पहले दबाव या तनाव होता है और हम छोटी-छोटी गलतियाँ करते हैं जैसे बस में भीड़ के कारण टिकट लेना भूल जाते हैं या गलत बस ले लेते हैं, अपने मोबाइल के जीपीएस को उस मार्ग पर ट्रैक करने के लिए रखें जहाँ आप हैं जा रहा है। बस कंडक्टर से बस टिकट लें और रेलवे के लिए स्टेशन से टिकट लें। बिना टिकट यात्रा करने की गलती न करें। मुंबई में सख्त नियम हैं, इसके लिए आपको कीमत चुकानी होगी।


यात्रा को सुरक्षित रखें, दूसरों से दूरी बनाए रखें, यात्रा करते समय मास्क पहनें, सुनिश्चित करें कि आपने अपना कोविड टीकाकरण पूरा कर लिया है, सुरक्षित रहें।

Wednesday, April 5, 2023

How to reach Tundla junction to Agra| टूंडला जंक्शन रेलवे स्टेशन से आगरा कैसे पहुंचे





 टूंडला जंक्शन से आगरा कैसे पहुंचे?


टूंडला से आगरा पहुंचने का सबसे सरल तरीका सड़क मार्ग से है आपको  टुंडला स्टेशन पर उतर जाना है वहा आकर आपको ऑटो वाले से कहना है भाई हमें चौराहे तक छोड़ दे चौराहे के ऑटो वाला मात्र 5 रूपए लेता है अब आप चौराहे पर आ गए अब आपको चौराहे पर ऑटो मिलेंगे जो रामबाग जा रहे होंगे वो आपसे 25 रूपए लेंगे और रामबाग छोड़ देंगे अब आपको जहा भी जाना हो आगरा में किसी भी जगह हर जगह का ऑटो आपको रामबाग से मिल जायेगा चाहे आप ताजमहल जाना चाहो या आगरा कैंट रेलवे स्टेशन जाना चाहो हर जगह जाने की सुविधा आपको रामबाग पर मिल जाएगी | 
                                                                   हाँ और में आपको बताती चलू की पहले रामबाग का नाम आरामबाग था तथा बाबर को सर्वप्रथम यही दफनाया गया था, यहाँ से आप एतमाद- उद-दौला पैदल ही निकल सकते है यहाँ से एतमाद- उद-दौला मात्र 2 किमी की दुरी पर है |

what is the distance between tundla junction to Agra?

25 K.M, There are 25km distance between tundla junction to Agra

Can we reach Tajmahal from Tundla junction?

Yes, Direct route from Tundla junction to Tajamahal

Is there a direct train from Tundla Jn to Mumbai?

No, There is no direct train from tundla junction to mumbai

क्या टूंडला जंक्शन स्टेशन पर डोरमेट्री की सुविधा है?

नहीं,टूंडला जंक्शन पर डोरमेट्री की सुविधा उपलब्ध नहीं है

डॉ भीमराव अंबेडकर का जीवन परिचय| Life History Of Dr. Bhimrao Ambedkar

    




बाबा साहेब डॉ भीमराव अम्बेडकर का जीवन परिचय धर्म व दर्शन के विद्वान, विधि विशेषज्ञ, अर्थशास्त्री, स्वतंत्रता पूर्व भारत के सर्वाधिक शिक्षित व बुद्धिजीवी व्यक्तित्वों में से एक बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर भारतीय इतिहास में बहुत सी अनन्य योग्यताओं और योगदान के लिए जाने जाते हैं।

जन्म व प्रारम्भिक जीवन –

बाबा साहेब डॉ भीमराव आंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को ब्रिटिश भारत के मध्यप्रदेश प्रान्त के महू सैन्य छावनी में हुआ था। इनके बचपन का नाम भिवा था। इनके पिता का नाम रामजी मालोजी सकपाल था जो ब्रिटिश प्रशासन में सूबेदार के पद तक पहुंच गए थे और माता का नाम भीमाबाई मुरबादकर था। इनके बचपन में ही इनकी माँ का देहांत हो जाने के कारण इन्हे इनकी बुआ मीराबाई ने सम्हाला और इन्ही के कहने पर इनके पिता ने जीजाबाई से दूसरी शादी की। ये अपने माता पिता की 14वीं/अंतिम संतान थे। ये हिन्दू धर्म की महार जाति से थे जो की उस समय की परिस्थिति के अनुसार अछूत मानी जाती थी जिसके कारण इन्हे समाज में बुरी तरह का भेदभाव सहन करना पड़ा था।

शिक्षा –

उस समय के भारत के अनुसार एक महार जाति (अछूत) में जन्म लेने के कारण इन्हे अपनी प्रारंभिक शिक्षा बहुत अपमानजनक तरीके से प्राप्त हुयी। हाईस्कूल में इनका उपनाम सकपाल की बजाय आंबडवेकर (आंबडवे गाँव से सम्बंधित) लिखवाया गया। बाद में उनके ब्रह्मण शिक्षक कृष्णा महादेव ने इसे सरलीकृत कर आंबेडकर कर दिया। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि भीमराव आंबेडकर आजादी से पूर्व के भारत के सर्वाधिक शिक्षित व्यक्ति थे। इन्होने स्नातक (बीo एo) की डिग्री बॉम्बे विश्वविद्यालय से प्राप्त की। इसके बाद कोलंबिया विश्वविद्यालय में शिक्षा ग्रहण की और वहां से एमo एo, पीo एचo डीo और एलo एलo डीo की उपाधि हासिल की। इसके अतिरिक्त लंदन स्कूल और इकोनॉमिक्स से एमo एस सीo और डीo एस सीo की उपाधि प्राप्त की। इनके घर पर इनका एक निजी पुस्तकालय भी था जिसमे 50 हजार से भी अधिक पुस्तकें थीं। आंबेडकर साहब विदेश जाकर अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट करने वाले प्रथम भारतीय थे। शिक्षा के बाद इन्होने शिक्षक और वकील का पेशा चुना। इसके अतिरिक्त ये विधिवेत्ता, दार्शनिक, लेखक, पत्रकार, अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ, शिक्षाविद्, मानवविज्ञानी, इतिहासविद्, प्रोफ़ेसर……इत्यादि भी थे।

करियर –

विश्व के प्रमुख कॉलेज और विश्वविद्यालयों से उच्च शिक्षा में उपाधियाँ हासिल करने के बाद इन्होने पहले अर्थशास्त्र के प्रोफेसर के तौर पर अपना करियर शुरू किया। उसके बाद इन्होने वकालत में भी करियर शुरू किया और समाज में दलितों की ख़राब दशा को सुधारने के अथक प्रयास किये। अंत में देश की राजनीति में आ गए और फिर पूरी तरह से इसी क्षेत्र में आजीवन अपना योगदान दिया।

वैवाहिक जीवन –

इनका विवाह 1906 ईo में जब ये 5 वीं कक्षा में पढ़ते थे, 15 वर्ष की अवस्था में  9 वर्ष की रमाबाई से कर दिया गया। इनके चार पुत्र:- यशवंत, रमेश, गंगाधर व राजरत्न और एक पुत्री:- इंदु थी। परन्तु यशवंत को छोड़कर अन्य सभी बच्चों की मृत्यु बचपन में ही हो गयी थी। 27 मई 1935 को इनकी पत्नी की भी मृत्यु हो गयी।

राजनीतिक जीवन –

  • 1936 ईo में इन्होने स्वतंत्र लेबर पार्टी की स्थापना की जो 1937 ईo के केंद्रीय विधानसभा में 15 सीटें जीती।
  • 15 मई 1936 को इन्होने अपनी एक पुस्तक Annihilation of Caste (जाती प्रथा का विनाश) प्रकाशित की।
  • 1942 से 1946 ईo तक वायसराय की कार्य परिषद् में श्रम मंत्री रहे।
  • 29 अगस्त 1947 से 24 जनवरी 1950 तक संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष रहे।
  • 15 अगस्त 1947 को आजाद भारत के प्रथम कानून व न्याय मंत्री बने और 27 सितम्बर 1951 को नेहरू जी को एक पत्र लिखकर पद से त्यागपत्र दे दिया ।
  • आंबेडकर तीन लोगों को अपना गुरु मानते थे – गौतम बुद्ध, कबीर दास और महात्मा ज्योतिबा फुले।

इन्हें गाँधी जी का समर्थक व विरोधी दोनों ही भूमिका में देखा जा सकता है। इन्होंने गाँधी जी पर उनके गुजराती भाषा के पत्रों में जाति प्रथा का समर्थन और अंग्रेजी भाषा में पत्रों द्वारा जाति प्रथा का विरोध किये जाने वाले दोहरे रवैये की आलोचना भी की थी।

संविधान के निर्माण में योगदान –

ब्रिटिश सत्ता को देश से उखाड़ फेंकने की कवायद तो सालों से चल रही थी। पहले स्वशासन फिर स्वराज्य प्राप्ति की अवधारणा के बाद 15 अगस्त 1947 को देश आजाद तो हो गया परन्तु उसकी व्यवस्था अभी भी ब्रिटिश राजतंत्रात्मक थी। इसे तोड़ने और देश में लोकतंत्र की स्थापना और स्वदेशी व्यवस्था बनाने हेतु आवश्यकता थी अपने संविधान की। जब बात संविधान के प्रारूप को तैयार करने की आयी तो एक अत्यंत योग्य व्यक्तित्व का नाम सामने आता है वो थे बाबा साहब भीमराव आंबेडकर जिन्हे संविधान सभा की प्रारूप समिति का अध्यक्ष बनाया गया। इन्हें ही भारतीय संविधान का जनक भी कहा जाता है। इन्होंने संविधान की धारा 370 का विरोध किया था, परन्तु इनकी इच्छा के विरुद्ध भी इस धारा को संविधान में सम्मिलित किया गया।

धर्म परिवर्तन –

देश में सर्वाधिक शिक्षित व बुद्धिजीवी व्यक्तियों में होते हुए भी इन्हे हिन्दू धर्म की जाति व्यवस्था के कारण समाज में अछूत नाम दिया गया। इन सबका उन्होंने लम्बे समय तक बेजोड़ प्रयास किया परन्तु वे सवर्णो की जातिवादी मानसिकता को नहीं बदल पाए और अंत में 13 अक्टूबर 1935 को इन्होंने नासिक में एक सम्मलेन के दौरान अपने धर्म परिवर्तन की घोषणा कर दी। इसके बाद 21 वर्षों तक तमाम धर्मो का अध्ययन करने के बाद 14 अक्टूबर 1956 ईo को इन्होंने अपने असंख्य अनुयाइयों के साथ बौद्ध धर्म अपना लिया। धर्म परिवर्तन की घोषणा के इतने सालों बाद तक विभिन्न धर्मो का अध्ययन करने का एक कारण यह भी था कि वो चाहते थे कि जब वे धर्म परिवर्तन करें तो उनके साथ उनके हजारों अनुयायी भी धर्म परिवर्तन करें।

मृत्यु –

ये 1948 ईo से ही मधुमेह से पीड़ित थे। जून 1954 से इनकी हालत बहुत बिगड़ने लगी और 6 दिसंबर 1956 को दिल्ली में इनकी मृत्यु हो गयी। इनका समाधि स्थल चैत्यभूमि, मुंबई (महाराष्ट्र) है।

पुरस्कार व सम्मान –

  • 1990 ईo में इन्हे मरणोपरांत देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया।
  • इनकी उपलब्धियों के लिए इन्हें आधुनिक युग का मनु की संज्ञा दी गयी।

Tuesday, April 4, 2023

कबीर दास का जीवन परिचय || Kabir Das ka Jivan Parichay

 

Kabir Das Ka Jivan-Parichay

पोथी पढ़ी पढ़ी जग मुआ, पंडित भया न कोय। 

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।।

     आज हम एक ऐसे व्यक्ति की विराट छाया में खड़े हैं। जिनके नाम का अर्थ महान होता है। कहा जाता हैं। वह पेशे से बुनकर थे। कपड़ा बुनने का काम करते थे। लेकिन वह अपने समाज के लिए, ऐसी बातें बुनकर या कहकर चले गए। कि आज उनके बगैर भारत की कहानी अधूरी है।

      यह व्यक्ति आज से 600 साल पहले हुए। उनके बारे में यह भी कहा जाता है कि अगर आज वह होते। तो न जाने कितने मुकदमे उन पर हो गए होते। उन्हें कबीर कहते हैं। चलिए खुद में कबीर को ढूंढते हैं। कबीर में खुद को ढूंढते हैं। 

      हिंदू, मुसलमान, ब्राह्मण, धनी, निर्धन सबका वही एक प्रभु है। सभी की बनावट में एक जैसी हवा। खून पानी का प्रयोग हुआ है। भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, नींद सभी की जरूरते एक जैसी हैं। सूरज, प्रकाश और गर्मी सभी को देता है। वर्षा का पानी सभी के लिए है।

      हवा सभी के लिए है। सभी एक ही आसमान के नीचे रहते हैं। इस तरह जब सभी को बनाने वाला ईश्वर, किसी के साथ भेदभाव नहीं करता। तो फिर मनुष्य, मनुष्य के बीच ऊंच-नीच, धनी-निर्धन, छुआछूत का भेदभाव क्यों करता है।

      ऐसे ही कुछ प्रश्न कबीर के मन में उठते थे। जिसके आधार पर उन्होंने मानव मात्र को सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी। कबीर ने अपने उपदेशों के द्वारा, समाज में फैली बुराइयों का कड़ा विरोध किया। एक आदर्श समाज की स्थापना पर बल दिया।

 कबीर ज्ञानमार्गी शाखा के सर्व प्रमुख, एक महान संत, समाज सुधारक और कवि हैं। कबीर को संत-संप्रदाय का प्रवर्तक माना जाता है।



सन्त कबीर दास 

जीवन-परिचय

एक नज़र

नाम

संत कबीर दास

अन्य नाम

कबीरदास, कबीर परमेश्वर,  कबीर साहब

जन्म

सन 1398 

(विक्रम संवत 1455) 

एक ब्राह्मण परिवार में

जन्म-स्थान

लहरतारा, काशी, उत्तर प्रदेश

पिता (पालने वाले)

नीरू (जुलाहे)

माता (पालने वाली) 

नीमा (जुलाहे)


कर्म-क्षेत्र

●संत (ज्ञानाश्रयी निर्गुण) 

●कवि

●समाज सुधारक 

●जुलाहा

कर्मभूमि

काशी, उत्तर प्रदेश

शिक्षा

निरक्षर (पढ़े-लिखे नहीं)

पत्नी

लोई

बच्चे

● कमाल (पुत्र) 

● कमाली (पुत्री)

गुरु

रामानंद जी (गुरु) सिद्ध, गोरखनाथ

विधा

कविता, दोहा, सबद

विषय

सामाजिक व अध्यात्मिक

मुख्य रचनाएं

सबद, रमैनी, बीजक, कबीर दोहावली, कबीर शब्दावली, अनुराग सागर, अमर मूल

भाषा

अवधी, सुधक्कड़ी, पंचमेल खिचड़ी भाषा

मृत्यु

सन 1519 (विक्रम संवत 1575)

मृत्यु-स्थान

मगहर, उत्तर प्रदेश

कबीर जयंती

प्रतिवर्ष जेष्ठय पूर्णिमा के दिन

कबीरदास जी का प्रारम्भिक जीवन

 कबीर दास जी ज्ञानमार्गी शाखा के एक महान संत व समाज-सुधारक थे। कबीर जी को संत समुदाय का प्रवर्तक माना जाता है। कबीर दास जी का जन्म विक्रम संवत 1455 अर्थात सन 1398 ईस्वी में हुआ था।

       प्राचीन मान्यताओं के अनुसार, इनका जन्म काशी के लहरतारा के आसपास हुआ था। यह भी माना जाता है कि इनको जन्म देने वाली, एक विधवा ब्राह्मणी थी। इस विधवा ब्राह्मणी को गुरु रामानंद स्वामी जी ने पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया था। जिसके परिणामस्वरूप कबीर दास जी का जन्म हुआ।

     लेकिन उस विधवा ब्राह्मणी को लोक-लाज का भय सताने लगा। कि दुनिया उस पर लांछन लगाएगी। इसी वजह से उन्होंने, इस नवजात शिशु को, काशी में लहरतारा नामक तालाब के पास छोड़ दिया था।

    इसके बाद उनका पालन-पोषण एक मुस्लिम जुलाहा दंपत्ति नीरू और नीमा ने किया था। इस जुलाहा दंपत्ति की कोई संतान नहीं थी। इन्होंने ही कबीर दास जी का पालन-पोषण किया।


कबीरदास जी के जन्म की अन्य मान्यताए

 कबीर पंथ की एक दूसरी धारा के मुताबिक, कबीर लहरतारा तालाब में एक कमल के फूल पर, बाल रूप में प्रकट हुए थे। वह अविगत अवतारी हैं। यहीं पर वह बालस्वरूप में, नीरू और नीमा को प्राप्त हुए थे। इसके लिए कबीर साहब की वाणी आती है।

“गगन मंडल से उतरे सतगुरु संत कबीर 

जलज मांही पोढन कियो सब पीरन के पीर”

     कबीर के जन्म से जुड़ी तमाम किवदंती अपनी जगह मौजूद है। कहीं-कहीं इस बात का भी जिक्र आता है। कबीर का जन्म स्थान काशी नहीं, बल्कि बस्ती जिले का  मगहर और कहीं आजमगढ़ जिले का बेलहारा गांव है।

     वैसे कबीर को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। कि उनका पालन-पोषण करने वाले किस धर्म के थे। वो मुसलमान थे या हिंदू। तुर्क थे या सनातनी। यह सवाल कबीर के लिए बेईमानी है। लेकिन समाज में क्या चल रहा था। क्या चलता आ रहा था। इसको लेकर कबीर, किसी को छोड़ने वाले नहीं थे।

कबीरदास जी की शिक्षा व गुरु

 कबीर दास जी इतने ज्ञानी कैसे थे आखिर उन्होंने यह ज्ञान कहां से प्राप्त किया था उनके गुरु को लेकर भी बहुत सारी बातें हैं कुछ लोग मानते हैं कि इनके गुरु रामानंद जगतगुरु रामानंद जी थे इस बात की पुष्टि स्वयं कबीर दास के इस दोहे से मिलती है।

“काशी में हम प्रगट भए, रामानंद चेताए”

यह बात इन्होंने ही कही है। उन्हें जो ज्ञान मिला था। उन्होंने जो राम भक्ति की थी। वह  रामानंद जी की देन थी। राम शब्द का ज्ञान, उन्हें रामानंद जी ने ही दिया था। इसके पीछे भी एक रोचक कहानी है।

     रामानंद जी उस समय एक बहुत बड़े गुरु हुआ करते थे। रामानंद जी ने कबीरदास को, अपना शिष्य बनाने से मना कर दिया था। यह बात कबीर दास जी को जमी नहीं। उन्होंने ठान लिया कि वह अपना गुरु, जगतगुरु रामानंद को ही बनाएंगे।

     कबीरदास जी को ज्ञात हुआ कि रामानंद जी रोज सुबह पंचगंगा घाट पर स्नान के लिए जाते हैं। इसलिए कबीर दास जी घाट की सीढ़ियों पर लेट गए। जब वहां रामानंद जी आए। तो रामानंद जी का पैर, कबीर दास के शरीर पर पड़ गया।

      तभी रामानंद जी मुख से, राम-राम शब्द निकल आया। जब कबीरदास जी ने रामानंद के मुख से, राम राम शब्द सुना। तो कबीरदास जी ने, उसे ही अपना दीक्षा मंत्र मान लिया। साथ ही गुरु के रूप में, रामानंद जी को स्वीकार कर लिया।

अधिकतर लोग रामानंद जी को ही कबीर का गुरु मानते हैं लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो मानते हैं कि कबीर दास जी के कोई गुरु नहीं थे उन्हें जितना भी ज्ञान प्राप्त हुआ है उन्होंने अपनी ही बदौलत किया है कबीर दास जी पढ़े-लिखे नहीं थे इस बात की पोस्ट के लिए भी पुष्टि के लिए भी दोहा मिलता है

मसि कागज छुओ नहीं, कलम गई नहीं हाथ”

अर्थात मैंने तो कभी कागज छुआ नहीं है। और कलम को कभी हाथ में पकड़ा ही नहीं है।


कबीरदास जी के प्रमुख शिष्य

 कबीर के प्रिय शिष्य धर्मदास थे। कबीर अशिक्षित थे। लेकिन वह ज्ञान और अनुभव  से समृद्ध थे। सद्गुरु रामानंद जी की कृपा से कबीर को आत्मज्ञान तथा प्रभु भक्ति का ज्ञान प्राप्त हुआ। बचपन से ही कबीर एकांत प्रिय व चिंतनशील स्वभाव के थे।

      उन्होंने जो कुछ भी सीखा। वह अनुभव की पाठशाला से ही सीखा। वह हिंदू और मुसलमान दोनों को एक ही पिता की संतान स्वीकार करते थे। कबीर दास जी ने स्वयं कोई ग्रंथ नहीं लिखें। उन्होंने सिर्फ उसे बोले थे। उनके शिष्यों ने, इन्हें कलमबद्ध कर लिया था।

       इनके अनुयाईयों व शिष्यों ने मिलकर, एक पंथ की स्थापना की। जिसे कबीर पंथ कहा जाता है। कबीरदास जी ने स्वयं किसी पंथ की स्थापना नहीं की। वह इससे परे थे। यह कबीरपंथी सभी समुदायों व धर्म से आते हैं। जिसमें हिंदू, इस्लाम, बौद्ध धर्म व सिख धर्म को मानने वाले है।

कबीरदास जी की भाषा व प्रमुख रचनाएँ

 कबीरदास जी की तीन रचनाएं मानी जाती है। जिनमें पहली रचना ‘साखी’ है। दूसरी रचना ‘सबद’ और तीसरी रचना ‘रमैनी’ है। पद शैली में सिद्धांतों का विवेचन ‘रमैनी’ कहलाता है। वही सबद गेय पद है। जिन्हें गाया जा सकता है।

     सबद व रमैनी की भाषा, ब्रज भाषा है। इस प्रकार कबीर की रचनाओं का संकलन बीजक नाम से प्रसिद्ध है। बीजक के ही 3 भाग – साखी, शब्द और रमैनी है। कबीर भक्तिकाल की निर्गुण काव्यधारा अर्थात ज्ञानाश्रई शाखा के प्रतिनिधि कवि हैं।

     कबीर ने अपनी रचनाओं में स्वयं को जुलाहा और काशी का निवासी कहा है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर को “वाणी का डिक्टेटर” कहा है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने कबीर की भाषा को ‘पंचमेल खिचड़ी’ कहा है।

     कबीर के पदों का संकलन बाबू श्यामसुंदर दास ने “कबीर ग्रंथावली” शीर्षक से किया है। कबीर हिंदी के सबसे पहले रहस्यवादी कवि थे। अतः कबीर के काव्य में भावात्मक, रहस्यवाद के दर्शन होते हैं। कबीर की रचनाओं में सिध्दों, नाथों और सूफी संतो की बातों का प्रभाव मिलता है।


कबीरदास जी का दर्शनशास्त्र

कबीरदास जी का मानना था कि धरती पर अलग-अलग धर्मों में बटवारा करना। यह सब मिथ है। गलत है। यह एक ऐसे संत थे। जिन्होंने हिंदू मुस्लिम एकता को बढ़ावा दिया। इन्होंने एक सार्वभौमिक रास्ता बताया उन्होंने कहा कि ऐसा रास्ता अपनाओ। जिसे सभी अनुसरण कर सके।

     जीवात्मा और परमात्मा का जो आध्यात्मिक सिद्धांत है। उस सिद्धांत को दिया। यानी मोक्ष क्या है। उन्होंने कहा कि धरती पर जो भी जीवात्मा और साक्षात जो ईश्वर है। जब इन दोनों का मिलन होता है। यही मोक्ष है। अर्थात जीवात्मा और परमात्मा का मिलन ही मोक्ष है।

      कबीर दास जी का विश्वास था। कि ईश्वर एक है। वो एक ईश्वरवाद में विश्वास करते थे। इन्होंने हिंदू धर्म में मूर्ति की पूजा को नकारा। उन्होंने कहा कि पत्थर को पूजने से कुछ नहीं होगा।

“कबीर पाथर पूजे हरि मिलै, तो मैं पूजूँ पहार।

घर की चाकी कोउ न पूजै, जा पीस खाए संसार।”

     कबीर दास जी ने ईश्वर को एक कहते हुए। अपने अंदर झांकने को कहा। भक्ति और सूफी आंदोलन के जो विचार थे। उनको बढ़ावा दिया। मोक्ष को प्राप्त करने के जो  कर्मकांड और तपस्वी तरीके थे। उनकी आलोचना की।

      इन्होंने ईश्वर को प्राप्त करने का तरीका बताया। कि दया भावना हर एक के अंदर होनी चाहिए। जब तक यह भावना इंसान के अंदर नहीं होती। तब तक वह ईश्वर से साक्षात्कार नहीं कर सकता। कबीर दास जी ने अहिंसा का पाठ लोगों को पढ़ाया।

संत कबीरदास जी के अनमोल दोहे

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कछु होय।

माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय।।

व्याख्या – इस दोहे में कबीर मन को समझाते हुए। धैर्य की परिभाषा बता रहे हैं। वह कहते हैं कि हे मन धीरे-धीरे अर्थात धैर्य धारण करके जो करना है, वह कर। धैर्य से ही सब कुछ होता है। समय से पहले कुछ भी नहीं होता। जिस प्रकार यदि माली सौ घड़ों के जल से पेड़ सींच दे। तो भी फल तो ऋतु आने पर ही होगा।

निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय।

बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।।

व्याख्या इस दोहे का अभिप्राय है की स्वयं की निंदा करने वालों से कभी भी घबराना नहीं चाहिए अपितु उनका सम्मान करना चाहिए क्योंकि वह हमारी कमियां हमें बताते हैं हमें उस कमी को दूर करने का प्रयास करना चाहिए।

कबीरा निन्दक ना मिलौ, पापी मिलौ हजार। 

इक निंदक के माथे सो, सौं पापिन का भार।। 

व्याख्या कबीरदास जी कहते हैं कि पाप करने वाले हजारों लोग मिल जाएं। लेकिन दूसरों की निंदा करने वाला न मिले। क्योंकि निंदा करने वाला, जिसकी निंदा करता है। उसका पाप अपने सर पर ले लेता है। इसलिए उन्होंने स्पष्ट किया है कि हजारों पापी मिले। तो चलेगा। लेकिन निंदक एक भी नहीं मिले। इसलिए हमें दूसरों की आलोचना करने से बचना चाहिए। जो दूसरों की आलोचना करता है। उससे भी बचना चाहिए।

माला फेरत जग भया, फिरा न मन का फेर।

कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।।

व्याख्या यह दोहा हमें आत्ममंथन करने के लिए प्रेरित करता है। वे कहते हैं कि हरी नाम की जप की माला फेरते-फेरते, कई युग बीत गए। लेकिन मन का फेरा, नहीं फिरा अर्थात शारीरिक रूप से हम कितना भी जप कर ले। हमारा कल्याण नहीं होगा। जब तक मन ईश्वर के चिंतन में नहीं लगेगा।  अतः हाथ की माला के बजाए, मन में गुथे हुए, सुविचारों की माला फेरों। तब कल्याण होगा

न्हाये धोए क्या हुआ, जो मन मैल न जाए।

मीन सदा जल में रहे, धोए बास जाए।।

व्याख्या यह दोहा भी मन को मथने के लिए है। कबीरदास जी कहते हैं। नहाने-धोने से कुछ नहीं होगा। यदि मन का मैल नहीं गया है। अर्थात बाहर से हम कितना भी चरित्रवान क्यों न बन जाए। अगर मन से चरित्रवान नहीं है। तो सब व्यर्थ है।


कबीरदास जी की मृत्यु

कबीर दास जी की मृत्यु से जुड़ी हुई। एक कहानी है। उस समय ऐसा माना जाता था। कि यदि काशी में किसी की मृत्यु होती है। तो वह सीधे स्वर्ग को जाता है। वहीं अगर मगहर में, किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है। तो वह सीधा नर्क में जाएगा।

     ऐसी मान्यता प्रचलित थी। कबीरदास जी ने, इस मान्यता को तोड़ने के लिए, अपना अंतिम समय मगहर में बिताने का निर्णय लिया। फिर वह अपने अंतिम समय में, मगहर चले गए। जहां पर उन्होंने विक्रम संवत 1575 यानी सन 1519 ई० मे अपनी देह का त्याग कर दिया।

कबीरदास जी की मृत्यु पर विवाद

  कबीरदास जी के देह त्यागने के बाद, उनके अनुयाई आपस में झगड़ने लगे। उन में हिंदुओं का कहना था कि कबीरदास जी हिंदू थे। उनका अंतिम संस्कार हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार होना चाहिए। वही मुस्लिम पक्ष के लोगों का कहना था कि कबीर मुस्लिम थे। तो उनका अंतिम संस्कार इस्लाम धर्म के अनुसार होना चाहिए।

      तब कबीरदास जी ने देह त्याग के बाद, दर्शन दिए। उन्होंने अपने अनुयायियों से कहा कि मैं न तो कभी हिंदू था। न ही मुस्लिम। मैं तो दोनों ही था। मैं कहूं, तो मैं कुछ भी नहीं कहा था। या तो सब कुछ था। या तो कुछ भी नहीं था। मैं दोनों में ही ईश्वर का साक्षात्कार देख सकता हूं।

      ईश्वर तो एक ही है। इसे दो भागों में विभाजित मत करो। उन्होंने कहा कि मेरा कफन हटाकर देखो। जब उनका कफन हटाया गया। तो पाया कि वहां कोई शव था, ही नहीं। उसकी जगह उन्हें बहुत सारे पुष्प मिले।

     इन पुष्पों को उन दोनों संप्रदायों में आपस में बांट लिया। फिर उन्होंने अपने-अपने रीति-रिवाजों से, उनका अंतिम संस्कार किया। आज भी मगहर में कबीर दास जी की मजार व समाधि दोनों ही हैं।

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